Tuesday, 5 September 2017
बक्सर का युद्ध
1760 के आसपास ‘मीर कासिम’ (Link in English) को देश से गद्दारी करने का इनाम मिला. अंग्रेजों ने उसे बंगाल के नवाब की गद्दी पर बैठने में मदद की. बाद में जब कासिम को पता चला कि वह सिर्फ कहने के लिए बंगाल का नवाब था. असल ताकत तो अंग्रेजी हुकूमत के पास ही थी, तो वह बागी हो गया. उसने अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. इसका परिणाम यह हुआ कि पहले उसे अपनी गद्दी से हाथ धोना पड़ा और बाद में बक्सर युद्ध में अंग्रेजों से हार का सामना करना पड़ा. तो आईये जानते हैं कि यह युद्ध चंद घंटों में ही क्यों हार गया था कासिम? किस-किस ने दिया था उसका साथ? और कौन ऐन मौके पर दुश्मन से जा मिला था:
‘मीर कासिम’ की बगावत बनी युद्ध का कारण
प्लासी के युद्ध (Link in English) के बाद ‘मीर कासिम’ अंग्रेजों की मदद से बंगाल का नवाब बना. चूंकि, वह खुद को एक स्वतंत्र शासक समझता था. इसके चलते उसने अपने हिसाब से बंगाल में कई परिवर्तन कार्य शुरु कर दिए. उसने कुछ सुधार किए, जिसके तहत प्रशासन और महलों पर खर्च में भारी कमी आ गई थी. उसने नियमित रूप से वेतन का भुगतान करना शुरु कर दिया था. राज्य में एक नई कर प्रणाली लागू कर दी थी. यही नहीं अपनी सुविधानुसार उसने राजधानी को मोन्घयार से मुर्शिदाबाद में स्थानांतरित कर दिया था.
यह ‘मीर कासिम’ के कुछ ऐसे काम थे, जिनके कारण वह ब्रिटिश अधिकारियों के निशाने पर आ गया. असल में इन कामों से अंग्रेजों को आर्थिक रुप से नुकसान होने लगा था. दूसरा वह बंगाल की गद्दी पर हमेशा से एक ऐसे व्यक्ति को चाहते थे, जो उनके इशारों पर काम करे. चूंकि, मीर कासिम इससे बिल्कुल इतर चल रहा था, इसलिए निशाने पर आना लाजमी था. अंग्रेजों ने कोशिश की, ताकि ‘मीर कासिम’ उनके खेमे में आ जाए, पर वह हमेशा खुद को ब्रिटिश प्रभाव से दूर रखना चाहता था. इस कारण उसके और अंग्रेजों के बीच संबध खराब होते चले गये.
आगे चलकर इसके चलते संघर्ष शुरु हो गए. परिणाम यह रहा कि बक्सर की लड़ाई से पहले हुए एक संघर्ष में उसे अंग्रेजों के हाथों हार का मुंह देखना पड़ा. नौबत यहां तक आ गई थी कि उसे मैदान छोड़कर भागना पड़ा. वह बंगाल छोड़कर अवध पहुंच गया था.
Battle of Buxar (Pic: shareyouressays.com)
शुजा-उद-दौला बने आगे के साथी
बंगाल से भागकर अवध पहुंचने पर उसने वहां के नवाब ‘शुजा-उद-दौला’ से मुलाकात की. उसने उनको अपने भरोसे में लिया और आगे के खिलाफ मोर्चा खोलने के लिए तैयार कर लिया. शुजा-उद-दौला का साथ मिलने के बाद उसने मुगल शासक ‘शाह आलम द्वितीय’ को भी अपने खेमे में कर लिया. शाह आलम को मनाना उसके लिए बहुत आसान रहा. असल में ‘शाह आलम द्वितीय’ पहले से ही अपने साम्राज्य को मजबूत करने के लिए बंगाल, बिहार और उड़ीसा को एक साथ जोड़ना चाहता था.
‘मीर कासिम’ ने इसका फायदा उठाया और उसे सपने दिखाए कि इस युद्ध के बाद उसका सपना पूरा हो जायेगा. इस तरह से ‘शुजा-उद-दौला’ और ‘शाह आलम द्वितीय’ के एक साथ आ जाने से ‘मीर कासिम’ अंग्रेजों के खिलाफ एक बड़ी सेना बनाने में कामयाब रहा. धीरे-धीरे उसने युद्ध की तैयारियां शुरु कर दीं. तीनों सेनाओंं ने एक साथ प्रशिक्षण शुरु कर दिए, ताकि दुश्मन को हराया जा सके. तरह-तरह की रणनीतियां बनाई गईं. ‘मीर कासिम’ किसी भी कीमत पर यह युद्ध जीतना चाहता था. वह ब्रिटिशों की शक्ति को खत्म करने के लिए आश्वस्त था.
…और कर दिया जंग का ऐलान
इस युद्ध को लड़ने के लिए बक्सर का मैदान चुना गया. दोनों सेनाएं समय के मुताबिक जंग के मैदान में पहुंची. अंग्रेजों की तरफ से लगभग 10,000 सैनिकों के साथ उनके कुशल सेनापति ‘कैप्टन मुनरो’ दुश्मन का सामना करने के लिए तैयार थे. दूसरी तरफ मुग़ल शासक ‘शाह आलम द्वितीय’, अवध के नवाब ‘शुजा-उद-दौला’ और ‘मीर क़ासिम’ अपनी-अपनी सेनाओं के साथ दुश्मन को शिकस्त देने के लिए तैयार थे. (Link in English) तीनों की सेना को मिलाकर लगभग 40,000 से अधिक सैनिक मैदान-ए-जंग में मौजूद थे.
मुनरो को अंदाजा था कि ‘मीर कासिम’ पूरी तैयारी से आयेगा. उसके पास एक बड़ी सेना भी होगी. उन्हें एहसास था कि आसानी से ‘मीर कासिम’ को हराया नहीं जा सकता, इसलिए उसने इसका तोड़ पहले ही निकाल लिया था. उसने अपने पास कुछ तुरुप के इक्के संभाल कर रखे हुए थे, जिन्हें वह मौके पर चलकर पल भर में बाजी अपने हाथ कर लेना चाहता था. बस अब उसे इंतजार था दुश्मन के वार का. इसी बीच दोनों सेनाओंं के बीच घमासान युद्ध शुरु हुआ. ‘मीर कासिम’ की सेना तेजी से अंग्रेजों की तरफ बढ़ी. उसने अंग्रेजों को मारना शुरु कर दिया. अंग्रेज भी कड़ी टक्कर दे रहे थे. इस बीच कुछ ऐसा हुआ जिसकी कल्पना ‘मीर कासिम’ ने सपने में भी नहीं की थी.
कुछ घंटों में ही हार गये युद्ध
अवध के नवाब की सेना से ‘असद ख़ां’, ‘साहूमल’ और जैनुल अबादीन अंग्रेजों से जा मिले और उनकी तरफ से युद्ध लड़ने लगे. असल में अंग्रेजों ने उन्हें युद्ध से पहले ही धन का लालच देकर अपने खेमे में कर लिया था. उन्हें तो बस सही वक्त का इंतजार था. यह उनके लिए तुरुप का इक्का साबित हुए. एक पल में बाजी पलट गई, जो मुगल सैनिक कुछ देर पहले अंग्रेजों पर भारी पड़ रहे थे. वह अब अपनी जान बचाते दिख रहे थे. ‘मीर कासिम’ को कुछ समझ नहीं आ रहा था. उसे प्लासी का युद्ध याद आ रहा था, जिसमें अंग्रेजों ने कुछ ऐसा ही किया था. वह निष्क्रिय हो चुका था. उसके सैनिक मरते जा रहे थे. कुछ देर बाद तो स्थिति और ज्यादा बिगड़ने लगी. सेनाएं आपस में बिखर गई. उनके बीच आपसी सामंजस्य टूट चुका था. अंग्रेजों ने इसका फायदा उठाया और महज कुछ घन्टों में ही इस युद्ध को अपने नाम कर लिया.
युद्ध को हाथ से निकलते हुए देख ‘शाह आलम द्वितीय’ ने भी अपना पाला बदल लिया. वह तुरंत अंग्रेज़ी दल से जा मिला और उनसे सन्धि कर ली. ऐसे में ‘मीर क़ासिम’ के पास भागने के सिवा कोई दूसरा विकल्प न था. अंग्रेज उससे खासा नाराज थे, इसलिए उसका मारा जाना तय था. वह वहां से जैसे-तैसे जान बचाकर भाग निकला और बाद में दिल्ली में आखिरी सांसे लीं. एक शुजा-उद-दौला ही थे, जो अंत तक लड़ते रहे. बावजूद उसके वह इस युद्ध के परिणाम को बदल नहीं सके. अंतत: उन्हें भी अंग्रेजों के सामने हथियार डालने पड़े.
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